Copyright@PBChaturvedi प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ'

रविवार, 21 जून 2009

मुफ़लिस के संसार का सपना

मुफ़लिस के संसार का सपना, सपना ही रह जाता है।
बंगला, मोटरकार का सपना; सपना ही रह जाता है।

रोटी में बस ख़र्च हो गई उम्र हमारी ये सारी,
इससे दूर विचार का सपना, सपना ही रह जाता है।

गाँवों से तो लोग हमेशा शहरों में आ जाते हैं,
सात समन्दर पार का सपना, सपना ही रह जाता है।

कोल्हू के बैलों के जैसे लोग शहर में जुतते हैं,
फ़ुरसत के व्यवहार का सपना, सपना ही रह जाता है।

बिक जाते हैं खेत-बगीचे, शहरों में बसते-बसते;
वापस उस आधार का सपना, सपना ही रह जाता है।

पैसा आज ‘अनघ’ मिलता है ख़ूब दूर के देशों में,
लेकिन सच्चे प्यार का सपना, सपना ही रह जाता है।

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4 टिप्‍पणियां:

  1. "आइस-बाइस,ओक्का-बोक्का,ओल्हा-पाती भूल गये,
    शहरों में अब बचपन को बस बल्ला-गेंद ही भाता है।"

    बहुत नजदीक हैं यह पंक्तियाँ मेरी संवेदना के । आभार ।

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  2. आप के सभी सपने बहुत ही सच्चे ओर लूभावने लगे.
    धन्यवाद इस सुंदर रचना के लिये.

    मुझे शिकायत है
    पराया देश
    छोटी छोटी बातें
    नन्हे मुन्हे

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  3. सराहनीय प्रयास.

    बधाई.

    चन्द्र मोहन गुप्त

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  4. कोल्हू के बैलों के जैसे लोग शहर में जुतते हैं,
    फ़ुरसत के व्यवहार का सपना सपना ही रह जाता है।


    बाग-बगीचे बिकते-बिकते कंगाली आ जाती है,
    लेके कटोरा नाम प्रभु का जपना ही रह जाता है।

    बाग-बगीचे बिकते-बिकते कंगाली आ जाती है,
    लेके कटोरा नाम प्रभु का जपना ही रह जाता है।

    bahut sundar hain teeno ghazalen. yah teen sher aapke mujhe bahut bhaaye.badhai!!

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