Copyright@PBChaturvedi प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ'

सोमवार, 29 जून 2009

पास आओ तो बात बन जाए

कई दिनों बाद इस ब्लाग पर कोई रचना प्रस्तुत कर रहा हूँ।देर की वजह कुछ तो "समकालीन ग़ज़ल [पत्रिका] ","बनारस के कवि/शायर "में व्यस्तता थी;कुछ मौसम का भी असर था।दरअसल गर्म मौसम में नेट पर बैठने का मन नहीं करता ; परन्तु अब नई रचनाएँ पोस्ट कर रहा हूँ , आशा है आप का स्नेह हर रचना को मिलेगा ... यहाँ इस रचना के साथ मैं पुनः उपस्थित हूँ-

पास आओ तो बात बन जाए।
दिल मिलाओ तो बात बन जाए।

बात गम से अगर बिगड़ जाए,
मुस्कुराओ तो बात बन जाए।

बीच तेरे मेरे जुदाई है,
याद आओ तो बात बन जाए।

तुमको देखा नहीं कई दिन से,
आ भी जाओ तो बात बन जाए।

साथ मेरे वही मुहब्बत का,
गीत गाओ तो बात बन जाए।

नफरतों से 'अनघ' फ़िजा बिगड़े,
दिल लगाओ तो बात बन जाए।
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रविवार, 21 जून 2009

मुफ़लिस के संसार का सपना

मुफ़लिस के संसार का सपना, सपना ही रह जाता है।
बंगला, मोटरकार का सपना; सपना ही रह जाता है।

रोटी में बस ख़र्च हो गई उम्र हमारी ये सारी,
इससे दूर विचार का सपना, सपना ही रह जाता है।

गाँवों से तो लोग हमेशा शहरों में आ जाते हैं,
सात समन्दर पार का सपना, सपना ही रह जाता है।

कोल्हू के बैलों के जैसे लोग शहर में जुतते हैं,
फ़ुरसत के व्यवहार का सपना, सपना ही रह जाता है।

बिक जाते हैं खेत-बगीचे, शहरों में बसते-बसते;
वापस उस आधार का सपना, सपना ही रह जाता है।

पैसा आज ‘अनघ’ मिलता है ख़ूब दूर के देशों में,
लेकिन सच्चे प्यार का सपना, सपना ही रह जाता है।

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सोमवार, 8 जून 2009

तेरी नाराज़गी का क्या कहना

तेरी नाराज़गी का क्या कहना ।
अपनी दीवानगी का क्या कहना ।

कट रही है तुझे मनाने में,
मेरी इस जिंदगी का क्या कहना ।

तेरी गलियों की खाक छान रहा,
मेरी आवारगी का क्या कहना ।

तेरी मुस्कान से भरी महफ़िल,
मेरी वीरानगी का क्या कहना ।

जान पर मेरे बन गई लेकिन,
तेरी इस दिल्लगी का क्या कहना ।

तूने ठुकरा दिया मुहब्बत को,,
तेरी इस सादगी का क्या कहना ।

कोशिशें सब ‘अनघ’ हुयी जाया,
ऐसी बेचारगी का क्या कहना ।

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आंधियाँ भी चले और दिया भी जले

आज मैं अपनी वह रचना आप के लिये प्रस्तुत कर रहा हूँ जिसे राग यमन में श्रीमती अर्चना शाही ने अपनी आवाज़ दी थी...आशा है आप इसे अवश्य पसन्द करेंगे.....

आंधियाँ भी चले और दिया भी जले ।
होगा कैसे भला आसमां के तले ।

अब भरोसा करें भी तो किस पर करें,
अब तो अपना ही साया हमें ही छले ।

दिन में आदर्श की बात हमसे करे,
वो बने भेड़िया ख़ुद जंहा दिन ढले ।

आवरण सा चढ़ा है सभी पर कोई,
और भीतर से सारे हुए खोखले ।

ज़िन्दगी की खुशी बांटने से बढ़े ,
तो सभी के दिलों में हैं क्यों फासले ।

कुछ बुरा कुछ भला है सभी को मिला ,
दूसरे की कोई बात फ़िर क्यों खले ।
 
भाइयों में भी अन्तर 'अनघ' दिख रहा,
एक ही कोख में जबकि दोनों पले |
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