Copyright@PBChaturvedi प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ'

गुरुवार, 6 अक्तूबर 2022

हुनर जब भी किसी का बोलता है

 

हुनर जब भी किसी का बोलता है |

तो अनुभव ज़िन्दगी का बोलता है |

 

कई अनहोनियाँ होनी हुईं हैं,

असर जब बन्दगी का बोलता है |

 

मची हलचल समुन्दर में हमेशा,

लिपटना जब नदी का बोलता है |

 

मुसव्विर रंग का गुणगान करता,

सुख़नवर शायरी का बोलता है |

 

तड़कती या भड़कती शय से ज्यादा,

नजरिया सादगी का बोलता है |

 

समाचारों की दुनिया में ‘अनघ’ अब,

करिश्मा सनसनी का बोलता है |

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सोमवार, 25 जुलाई 2022

सत्य क्या है ये जानना होगा


सत्य क्या है ये जानना होगा ?

प्रश्न को यूँ न टालना होगा |

 

हम जहाँ रह रहे वहाँ हर पल,

साथ दुश्मन है मानना होगा |

 

जो दगा दे रहे हैं मुद्दत से,

दिल में रखना उन्हें मना होगा |

 

भाईचारा निभा रहे हैं हम,

मिल रहा क्या ये सोचना होगा ?

 

दिख रही है तुम्हें भले चिड़िया,

आँख पर लक्ष्य साधना होगा |

 

चिकनी-चुपड़ी बहुत हुई बातें,

होश अबसे संभालना होगा |

 

हम सहस्त्राब्दियों रहे सोए,

हिन्दुओं आज जागना होगा |

 

कैसे होगा वो आदमी बोलो ?

खून से हाथ जब सना होगा |

 

वीडियो भी सिहर गया देखो,

क़त्ल करते समय बना होगा |

 

हाँ ‘अनघ’ हैं सहिष्णु हम लेकिन,

जुल्म का बल से सामना होगा |

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गुरुवार, 11 नवंबर 2021

बढ़े हम फासलों तक जा रहे हैं

बढ़े हम फासलों तक जा रहे हैं |
हंसी से आंसुओं तक जा रहे हैं |
 
सभी हैं दोस्त, ये जो काफिला है,
हमारे दुश्मनों तक जा रहे हैं |
 
बहन, भाई के रिश्ते बचपनों तक,
बड़े, न्यायालयों तक जा रहे हैं |
 
मुहब्बत दिल का रिश्ता अब नहीं  है,
सभी अब बिस्तरों तक जा रहे हैं |
 
मतलबी लोग सारे हो गए हैं,
वो केवल दावतों तक जा रहे हैं |
 
गिरावट आ रही है आदमी में,
भले ग्रह-उपग्रहों तक जा रहे हैं |
 
न पाठक आ रहे हैं पुस्तकों तक,
न लेखक अब दिलों तक जा रहे हैं |
 
पुरानी बात है बाजार जाना,
वो खुद चलकर घरों तक जा रहे हैं |
 
नहीं अंतर है इनमें, मसखरों में,
ये कवि अब चुटकुलों तक जा रहे हैं |
 
खबर अच्छी कहीं कोई न मिलती,
नगर बस हादसों तक जा रहे हैं |
 
न गाँवों में दिखे पहले सी रौनक,
शहर की आदतों तक जा रहे हैं |
 
ज़रा सा शेर कह सोचें अनघवो,
कि हम भी गालिबों तक जा रहे हैं | Copyright@PBChaturvedi

गुरुवार, 14 अक्तूबर 2021

बिना इंसानियत इन्सान सच्चा हो नहीं सकता

बिना इंसानियत इन्सान सच्चा हो नहीं सकता|
हुआ अपना नहीं जो वो किसी का हो नहीं सकता|
 
अगर तुलना करें इक घाव की पाया जो गैरों से, 
मिला अपनों से उससे तो वो गहरा हो नहीं सकता|
 
यही हम सोचते अक्सर जो अनहोनी कभी होती, 
सरासर झूठ है ये बात, ऐसा हो नहीं सकता|

हमेशा लील जाते हैं बड़े अपनों से छोटों को, 
गिरा सागर में दरिया तो वो दरिया हो नहीं सकता|
 
हुए जब भी अलग माँ-बाप बच्चे पर बुरी बीती, 
पिता का हो नहीं सकता या माँ का हो नहीं सकता|
 
जगह दिल में किसी के भी बड़ी मुश्किल से बनती है, 
अगर दिल टूट जाए फिर भरोसा हो नहीं सकता|
 
न मानो तुम भले लेकिन सही ये बात है तो है, 
गलत मंजिल अगर हो ठीक रस्ता हो नहीं सकता|
 
दिलों को जीत सकते हैं, पिघल सकते हैं पत्थर भी,
मुहब्बत की जुबां से ये कहो क्या हो नहीं सकता|
 
कमी तो दौलतों की रौशनी में हो भी सकती है, 
अगर हो इल्म की दौलत, अँधेरा हो नहीं सकता|
 
सितारे अब कहे जाते यहाँ मशहूर कुछ चेहरे, 
मगर जो रौशनी ना दे सितारा हो नहीं सकता|
 
सभी के वास्ते भगवान ने सौंपी अलग नेमत, 
जो तेरा है वो तेरा है, ‘अनघ’ का हो नहीं सकता| 

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शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

न्यायालय में न्याय नहीं है

न्यायालय में न्याय नहीं है |
दूजा और उपाय नहीं है |
 
मत बाँधो इसको खूंटे से,
बेटी है ये गाय नहीं है |
 
मोमबत्तियां जला रहे हैं,
न्याय भरा समुदाय नहीं है |
 
निर्भयता से बेटी रह ले,
ऐसी एक सराय नहीं है |
 
नेताओं की पुस्तक में क्यों,
सच जैसा अध्याय नहीं है |
 
दौलत नित बढ़ती पर कहते,
राजनीति व्यवसाय नहीं है |
 
खर्चे पर खर्चे करते हैं,
लेकिन कोई आय नहीं है |
 
सच, ईमान जहाँ सब सीखें,
जग में वो संकाय नहीं है |
 
अपराधी फल-फूल रहे हैं,
क्या अब लगती हाय नहीं है |
 
जब अखबार नहीं; लगता है,
आज सुबह की चाय नहीं है |
 
जयचन्दों से देश भरा है,
कोई पन्ना-धाय नहीं है |
 
प्रतिभाओं का वंचित रहना,
क्या ये भी अन्याय नहीं है |
 
तेरी-मेरी, इसकी-उसकी,
मिलती ‘अनघ’ क्यों राय नहीं है | 
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शनिवार, 22 मई 2021

मुझे कुछ-कुछ सुनाई दे रहा है

मुझे कुछ-कुछ सुनाई दे रहा है |

कहीं कोई दुहाई दे रहा है|

 

अगर तूने नहीं गलती किया तो,

बता तू क्यों सफाई दे रहा है|

 

तुम्हारे क़ैद में महफूज रहता,

मुझे तू क्यों रिहाई दे रहा है|

 

दिखाया जा रहा जो कुछ छिपाकर,

वही हमको दिखाई दे रहा है|

 

उसी से प्यार मुझको हो गया है,

मुझे जो बेवफाई दे रहा है |

 

जहन्नुम में जगह खाली नहीं नहीं है,

भले को क्यों बुराई दे रहा है|

 

न अब परिवार में कुछ पल बिताना,

ये रिश्तों में ढिठाई दे रहा है|

 

बहुत मुश्किल घड़ी है वक्त हमको,

कुआँ इक ओर खाई दे रहा है|

 

सियासत का सबक यारों में मुझको,

मुसलमाँ, सिख, ईसाई दे रहा है|

 

मिले हम खुश हुए लेकिन ये गम है,

ये मिलना कल जुदाई दे रहा है|

 

सही लिखने का जज्बा है ‘अनघ’ जो,

कलम को रोशनाई दे रहा है|

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