आज एक अरसे बाद मैं फिर लौटा हूँ ब्लाग की दुनिया में......है न....! जब मैं वाराणसी से बाहर था तो मेरे कार्यक्षेत्र के एक पुराने एडवोकेट और वाराणसी के काव्य-संसार के एक सशक्त हस्ताक्षर श्री रामदास ‘अकेला’ जी ( जिनकी गज़लें आप ‘बनारस के कवि और शायर/रामदास अकेला’ में पढ़ चुके हैं ) ; इस दुनिया को छोड़ गये । इसी परिस्थिति में पूर्व की लिखी गयी मुझे अपनी कुछ पंक्तियाँ याद आ गयीं जो मैं आप से जरूर बांटना चाहूँगा...
कौन जिन्दा है कब तलक जाने!
मुंद ये जायेगी कब पलक जाने!
चार दिन के जमीं पे हैं मेहमां,
फिर बुला लेगा कब फलक जाने!
ज़िन्दगी ज्यों घड़ा है मिट्टी का,
फूट कर कब पड़े छलक जाने!
मौत वो जाम है जिसे पीकर,
सूख जाता है कब हलक जाने!
जो गए ज़िन्दगी से दूर ‘अनघ’,
क्या दिखेगी कभी झलक जाने!
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